Geeta Saar Bhagavad Gita Gyan Bhagwat Geeta Hindi Spiritual Chapter 13
||श्रीमद भगवद गीता||
“अध्याय 13 - क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग”
![]() |
Astro Motive Astrology by Astrologer Dr. C K Singh |
श्रीमद भगवद गीता 13, भगवत गीता, गीता सार, गीता ज्ञान, गीता उपदेश, गीता श्लोक, संपूर्ण गीता, संपूर्ण गीता पाठ, Bhagavad Gita, Geeta Saar, Hindi Gyan Astro Motive Astrology by Astrologer Dr. C K Singh
अर्जुन ने पूछा - हे केशव! (Bhagavad Gita Geeta Saar, Chakra Meditation, Kundalini Chakras ) मैं आपसे प्रकृति एवं पुरुष, क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ और ज्ञान एवं ज्ञान के लक्ष्य के विषय में जानना चाहता हूँ। 1
श्री भगवान ने कहा - हे कुन्तीपुत्र! यह शरीर ही क्षेत्र (कर्म-क्षेत्र) कहलाता है और जो इस क्षेत्र को जानने वाला है, वह क्षेत्रज्ञ (आत्मा) कहलाता है, ऎसा तत्व रूप से जानने वाले महापुरुषों द्वारा कहा गया हैं। 2 Astro Motive Astrology by Astrologer Dr. C K Singh
हे भरतवंशी! तू इन सभी शरीर रूपी क्षेत्रों का
ज्ञाता निश्चित रूप से मुझे ही समझ और इस शरीर तथा इसके ज्ञाता को जान लेना ही
ज्ञान कहलाता है, ऐसा
मेरा विचार है। 3
यह शरीर रूपी कर्म-क्षेत्र जैसा भी है एवं जिन
विकारों वाला है और जिस कारण से उत्पन्न होता है तथा वह जो इस क्षेत्र को जानने
वाला है और जिस प्रभाव वाला है उसके बारे में संक्षिप्त रूप से मुझसे सुन। 4
इस क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के बारे में ऋषियों
द्वारा अनेक प्रकार से वैदिक ग्रंथो में वर्णन किया गया है एवं वेदों के मन्त्रों
द्वारा भी अलग-अलग प्रकार से गाया गया है और इसे विशेष रूप से वेदान्त में
नीति-पूर्ण वचनों द्वारा कार्य-कारण सहित भी प्रस्तुत किया गया है। 5
हे अर्जुन! यह क्षेत्र पंच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश), अहंकार, बुद्धि, प्रकृति के अव्यक्त तीनों गुण (सत, रज, और तम), दस इन्द्रियाँ(कान, त्वचा, आँख, जीभ, नाक, हाथ, पैर, मुख, उपस्थ और गुदा), एक मन, पाँच इन्द्रियों के विषय (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध)। इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, चेतना और धारणा वाला यह समूह
ही विकारों वाला पिण्ड रूप शरीर है जिसके बारे में संक्षेप में कहा गया है। 6-7
विनम्रता (मान-अपमान
के भाव का न होना), दम्भहीनता (कर्तापन के भाव का न होना), अहिंसा (किसी को भी कष्ट नहीं पहुँचाने
का भाव), क्षमाशीलता(सभी अपराधों के लिये क्षमा
करने का भाव), सरलता (सत्य को न छिपाने का भाव), पवित्रता (मन और शरीर से शुद्ध रहने का
भाव), गुरु-भक्ति (श्रद्धा सहित गुरु की सेवा
करने का भाव), दृड़ता (संकल्प में स्थिर रहने का भाव) और आत्म-संयम (इन्द्रियों को वश में रखने का
भाव)। 8
इन्द्रिय-विषयों (शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श) के प्रति वैराग्य का भाव, मिथ्या अहंकार (शरीर को स्वरूप समझना) न करने का भाव, जन्म, मृत्यु, बुढा़पा, रोग, दुःख और अपनी बुराईयों का
बार-बार चिन्तन करने का भाव। 9
पुत्र, स्त्री, घर और अन्य भौतिक वस्तुओं के प्रति आसक्त न होने का भाव, शुभ और अशुभ की प्राप्ति पर भी निरन्तर एक समान रहने का भाव। 10
मेरे अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु को प्राप्त न
करने का भाव, बिना
विचलित हुए मेरी भक्ति में स्थिर रहने का भाव, शुद्ध
एकान्त स्थान में रहने का भाव और सांसारिक भोगों में लिप्त मनुष्यों के प्रति
आसक्ति के भाव का न होना। 11
निरन्तर
आत्म-स्वरूप में स्थित रहने का भाव और तत्व-स्वरूप परमात्मा से साक्षात्कार करने
का भाव यह सब तो मेरे द्वारा ज्ञान कहा गया है और इनके अतिरिक्त जो भी है वह
अज्ञान है। 12
हे
अर्जुन! जो जानने योग्य है अब मैं उसके विषय में बतलाऊँगा जिसे जानकर मृत्यु को
प्राप्त होने वाला मनुष्य अमृत-तत्व को प्राप्त होता है, जिसका जन्म कभी नही होता है जो
कि मेरे अधीन रहने वाला है वह न तो कर्ता है और न ही कारण है, उसे परम-ब्रह्म (परमात्मा) कहा जाता है। 13
वह परमात्मा सभी ओर से हाथ-पाँव वाला है, वह सभी ओर से आँखें, सिर तथा मुख वाला है, वह सभी ओर सुनने वाला है और
वही संसार में सभी वस्तुओं में व्याप्त होकर स्थित है। 14
वह परमात्मा समस्त इन्द्रियों का मूल स्रोत है, फिर भी वह सभी इन्द्रियों से
परे स्थित रहता है वह सभी का पालन-कर्ता होते हुए भी अनासक्त भाव में स्थित रहता
है और वही प्रकृति के गुणों (सत, रज, तम) से परे स्थित होकर भी समस्त
गुणों का भोक्ता है। 15
वह
परमात्मा चर-अचर सभी प्राणीयों के अन्दर और बाहर भी स्थित है, उसे अति-सूक्ष्म होने के कारण
इन्द्रियों के द्वारा नही जाना जा सकता है, वह
अत्यन्त दूर स्थित होने पर भी सभी प्राणीयों के अत्यन्त पास भी वही स्थित है। 16
वह परमात्मा सभी प्राणीयों में अलग-अलग स्थित
होते हुए भी एक रूप में ही स्थित रहता है, यद्यपि
वही समस्त प्राणीयों को ब्रह्मा-रूप से उत्पन्न करने वाला है, विष्णु-रूप से पालन करने वाला
है और रुद्र-रूप से संहार करने वाला है117
वह
परमात्मा सभी प्रकाशित होने वाली वस्तुओं के प्रकाश का मूल स्रोत होते हुए भी
अन्धकार से परे स्थित रहता है, वही
ज्ञान-स्वरूप (आत्मा) है, वही जानने योग्य (परमात्मा) है, वही ज्ञान स्वरूप (आत्मा) द्वारा प्राप्त करने वाला लक्ष्य
है और वही सभी के हृदय में विशेष रूप से स्थित रहता है। 18
इस प्रकार कर्म-क्षेत्र (शरीर), ज्ञान-स्वरूप (आत्मा) और जानने योग्य(परमात्मा) के स्वरूप का संक्षेप में
वर्णन किया गया है, मेरे
भक्त ही यह सब जानकर मेरे स्वभाव को प्राप्त होते हैं। 19
हे अर्जुन! इस प्रकृति (भौतिक जड़ प्रकृति) एवं पुरुष (परमात्मा) इन दोनों को ही तू निश्चित रूप
से अनादि समझ और राग-द्वेष आदि विकारों को प्रकृति के तीनों गुणों से उत्पन्न हुआ
ही समझ। 20
जिसके
द्वारा कार्य उत्पन्न किये जाते है और जिसके द्वारा कार्य सम्पन्न किये जाते है उसे
ही भौतिक प्रकृति कहा जाता है, और
जीव (प्राणी) सुख तथा दुःख के भोग का कारण
कहा जाता है। 21
भौतिक प्रकृति में स्थित होने के कारण ही प्राणी, प्रकृति के तीनों गुणों से
उत्पन्न पदार्थों को भोगता है और प्रकृति के गुणों की संगति के कारण ही जीव उत्तम
और अधम योनियाँ में जन्म को प्राप्त होता रहता है। 22
सभी
शरीरों का पालन-पोषण करने वाला परमेश्वर ही भौतिक प्रकृति का भोक्ता साक्षी-भाव
में स्थित होकर अनुमति देने वाला है, जो
कि इस शरीर में आत्मा के रूप में स्थित होकर परमात्मा कहलाता है। 23
जो मनुष्य इस प्रकार जीव को प्रकृति के गुणों के
साथ ही जानता है वह वर्तमान में किसी भी परिस्थिति में स्थित होने पर भी सभी
प्रकार से मुक्त रहता है और वह फिर से जन्म को प्राप्त नही होता है। 24
कुछ
मनुष्य ध्यान-योग में स्थित होकर परमात्मा को अपने अन्दर हृदय में देखते हैं, कुछ मनुष्य वैदिक कर्मकाण्ड के
अनुशीलन के द्वारा और अन्य मनुष्य निष्काम कर्म-योग द्वारा परमात्मा को प्राप्त
होते हैं। 25
कुछ ऎसे भी मनुष्य हैं जो आध्यात्मिक ज्ञान को
नहीं जानते है परन्तु वह अन्य महापुरुषों से परमात्मा के विषय सुनकर उपासना करने
लगते हैं, परमात्मा के विषय में सुनने की
इच्छा करने कारण वह मनुष्य भी मृत्यु रूपी संसार-सागर को निश्चित रूप से पार कर
जाते हैं। 26
हे भरतवंशी अर्जुन! इस संसार में जो कुछ भी
उत्पन्न होता है और जो भी चर-अचर प्राणी अस्तित्व में है, उन सबको तू क्षेत्र (जड़ प्रकृति) और क्षेत्रज्ञ (चेतन प्रकृति) के संयोग से ही उत्पन्न हुआ
समझ। 27
जो मनुष्य समस्त नाशवान शरीरों में अविनाशी
आत्मा के साथ अविनाशी परमात्मा को समान भाव से स्थित देखता है वही वास्तविक सत्य
को यथार्थ रूप में देखता है। 28
जो मनुष्य सभी चर-अचर प्राणीयों में समान भाव से एक ही परमात्मा को समान रूप से स्थित देखता है वह अपने मन के द्वारा अपने आप को कभी नष्ट नहीं करता है, इस प्रकार वह मेरे परम-धाम को प्राप्त करता है। 29 Astro Motive Astrology by Astrologer Dr. C K Singh
जो मनुष्य समस्त कार्यों को सभी प्रकार से
प्रकृति के द्वारा ही सम्पन्न होते हुए देखता है और आत्मा को अकर्ता देखता है, वही यथार्थ रूप से देखता है। 30
जब जो
मनुष्य सभी प्राणीयों के अलग-अलग भावों में एक परमात्मा को ही स्थित देखता है और
उस एक परमात्मा से ही समस्त प्राणीयों का विस्तार देखता है, तब वह परमात्मा को ही प्राप्त
होता है। 31
हे कुन्तीपुत्र! यह अविनाशी आत्मा आदि-रहित और प्रकृति
के गुणों से परे होने के कारण शरीर में स्थित होते हुए भी न तो कुछ करता है और न
ही कर्म उससे लिप्त होते हैं। 32
जिस
प्रकार सभी जगह व्याप्त आकाश अपनी सूक्ष्म प्रकृति के कारण किसी वस्तु से लिप्त
नहीं होता, उसी
प्रकार शरीर में सभी जगह स्थित आत्मा भी शरीरों के कार्यों से कभी लिप्त नहीं होता
है। 33
हे
भरतवंशी अर्जुन! जिस प्रकार एक ही सूर्य इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता
है, उसी प्रकार शरीर में स्थित एक
ही आत्मा सम्पूर्ण शरीर को अपनी चेतना से प्रकाशित करता है। 34
जो मनुष्य इस प्रकार शरीर और शरीर के स्वामी के अन्तर को अपने ज्ञान नेत्रों से देखता है तो वह जीव प्रकृति से मुक्त होने की विधि को जानकर मेरे परम-धाम को प्राप्त होता हैं। 35
0 टिप्पणियाँ