Geeta Saar Bhagavad Gita Spiritual Gyan Bhagwat Geeta Hindi Chapter 15
||श्रीमद भगवद गीता||
“अध्याय 15 - पुरुषोत्तम योग”
![]() |
Astro Motive Astrology by Astrologer Dr. C K Singh |
श्री भगवान (श्रीमद भगवद गीता, भगवद गीता, Bhagavad Gita, Geeta Saar, Spiritual Gyan ) ने कहा - हे अर्जुन! इस संसार को अविनाशी वृक्ष कहा गया है, जिसकी
जड़ें ऊपर की ओर हैं और शाखाएँ नीचे की ओर तथा इस वृक्ष के पत्ते वैदिक स्तोत्र है, जो इस अविनाशी वृक्ष को जानता
है वही वेदों का जानकार है। 1
इस संसार रूपी वृक्ष की समस्त योनियाँ रूपी
शाखाएँ नीचे और ऊपर सभी ओर फ़ैली हुई हैं, इस
वृक्ष की शाखाएँ प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा विकसित होती है, इस वृक्ष की इन्द्रिय-विषय
रूपी कोंपलें है, इस
वृक्ष की जड़ों का विस्तार नीचे की ओर भी होता है जो कि सकाम-कर्म रूप से मनुष्यों
के लिये फल रूपी बन्धन उत्पन्न करती हैं। 2
इस संसार रूपी वृक्ष के वास्तविक स्वरूप का
अनुभव इस जगत में नहीं किया जा सकता है क्योंकि न तो इसका आदि है और न ही इसका
अन्त है और न ही इसका कोई आधार ही है, अत्यन्त
दृड़ता से स्थित इस वृक्ष को केवल वैराग्य रूपी हथियार के द्वारा ही काटा जा सकता
है। 3
वैराग्य रूपी हथियार से काटने के बाद मनुष्य को
उस परम-लक्ष्य (परमात्मा)के
मार्ग की खोज करनी चाहिये, जिस
मार्ग पर पहुँचा हुआ मनुष्य इस संसार में फिर कभी वापस नही लौटता है, फिर मनुष्य को उस परमात्मा के
शरणागत हो जाना चाहिये, जिस परमात्मा से इस आदि-रहित संसार रूपी वृक्ष की उत्पत्ति और विस्तार होता है। 4
जो मनुष्य मान-प्रतिष्ठा और मोह से मुक्त है तथा
जिसने सांसारिक विषयों में लिप्त मनुष्यों की संगति को त्याग दिया है, जो निरन्तर परमात्म स्वरूप में
स्थित रहता है, जिसकी
सांसारिक कामनाएँ पूर्ण रूप से समाप्त हो चुकी है और जिसका सुख-दुःख नाम का भेद
समाप्त हो गया है ऎसा मोह से मुक्त हुआ मनुष्य उस अविनाशी परम-पद(परम-धाम) को प्राप्त करता हैं। 5
उस परम-धाम को न तो सूर्य प्रकाशित करता है, न चन्द्रमा प्रकाशित करता है
और न ही अग्नि प्रकाशित करती है, जहाँ
पहुँचकर कोई भी मनुष्य इस संसार में वापस नहीं आता है वही मेरा परम-धाम है। 6
हे
अर्जुन! संसार में प्रत्येक शरीर में स्थित जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है, जो कि मन सहित छहों इन्द्रियों
के द्वारा प्रकृति के अधीन होकर कार्य करता है। 7
शरीर का स्वामी जीवात्मा छहों इन्द्रियों के
कार्यों को संस्कार रूप में ग्रहण करके एक शरीर का त्याग करके दूसरे शरीर में उसी
प्रकार चला जाता है जिस प्रकार वायु गन्ध को एक स्थान से ग्रहण करके दूसरे स्थान
में ले जाती है। 8
इस
प्रकार दूसरे शरीर में स्थित होकर जीवात्मा कान,
आँख, त्वचा, जीभ, नाक और मन की सहायता से ही
विषयों का भोग करता है। 9
जीवात्मा शरीर का किस प्रकार त्याग कर सकती है, किस प्रकार शरीर में स्थित रहती है और किस प्रकार प्रकृति के गुणों के अधीन होकर विषयों का भोग करती है, मूर्ख मनुष्य कभी भी इस प्रक्रिया को नहीं देख पाते हैं केवल वही मनुष्य देख पाते हैं जिनकी आँखें ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित हो गयी हैं। 10
योग के
अभ्यास में प्रयत्नशील मनुष्य ही अपने हृदय में स्थित इस आत्मा को देख सकते हैं, किन्तु जो मनुष्य योग के
अभ्यास में नहीं लगे हैं ऐसे अज्ञानी प्रयत्न करते रहने पर भी इस आत्मा को नहीं
देख पाते हैं। 11
हे अर्जुन! जो प्रकाश सूर्य में स्थित है जिससे
समस्त संसार प्रकाशित होता है, जो
प्रकाश चन्द्रमा में स्थित है और जो प्रकाश अग्नि में स्थित है, उस प्रकाश को तू मुझसे ही उत्पन्न
समझ। 12
मैं ही प्रत्येक लोक में प्रवेश करके अपनी शक्ति
से सभी प्राणीयों को धारण करता हूँ और मैं ही चन्द्रमा के रूप से वनस्पतियों में
जीवन-रस बनकर समस्त प्राणीयों का पोषण करता हूँ। 13
मैं ही पाचन-अग्नि के रूप में समस्त जीवों के
शरीर में स्थित रहता हूँ, मैं
ही प्राण वायु और अपान वायु को संतुलित रखते हुए चार प्रकार के (चबाने वाले, पीने वाले, चाटने वाले और चूसने वाले) अन्नों को पचाता हूँ। 14
मैं ही समस्त जीवों के हृदय में आत्मा रूप में
स्थित हूँ, मेरे
द्वारा ही जीव को वास्तविक स्वरूप की स्मृति, विस्मृति
और ज्ञान होता है, मैं
ही समस्त वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ, मुझसे
ही समस्त वेद उत्पन्न होते हैं और मैं ही समस्त वेदों को जानने वाला हूँ। 15
हे
अर्जुन! संसार में दो प्रकार के ही जीव होते हैं एक नाशवान (क्षर) और दूसरे अविनाशी (अक्षर), इनमें समस्त जीवों के शरीर तो
नाशवान होते हैं और समस्त जीवों की आत्मा को अविनाशी कहा जाता है। 16
परन्तु इन दोनों के अतिरिक्त एक श्रेष्ठ पुरुष
है जिसे परमात्मा कहा जाता है, वह
अविनाशी भगवान तीनों लोकों में प्रवेश करके सभी प्राणीयों का भरण-पोषण करता है। 17
क्योंकि मैं ही क्षर और अक्षर दोनों से परे
स्थित सर्वोत्तम हूँ, इसलिये
इसलिए संसार में तथा वेदों में पुरुषोत्तम रूप में विख्यात हूँ। 18
हे भरतवंशी अर्जुन! जो मनुष्य इस प्रकार मुझको
संशय-रहित होकर भगवान रूप से जानता है, वह
मनुष्य मुझे ही सब कुछ जानकर सभी प्रकार से मेरी ही भक्ति करता है। 19
हे निष्पाप अर्जुन! इस प्रकार यह शास्त्रों का अति गोपनीय रहस्य मेरे द्वारा कहा गया है, हे भरतवंशी जो मनुष्य इस परम-ज्ञान को इसी प्रकार से समझता है वह बुद्धिमान हो जाता है और उसके सभी प्रयत्न पूर्ण हो जाते हैं। 20 Astro Motive Astrology by Astrologer Dr. C K Singh
0 टिप्पणियाँ