Bhagavad Gita in Hindi Bhagavad Gita Gyan Hindi Spiritual Chapter 6
||श्रीमद भगवद गीता||
“अध्याय 6 - आत्म संयम योग”
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Astro Motive Astrology by Astrologer Dr. C K Singh |
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श्री भगवान ने कहा - जो मनुष्य बिना किसी फ़ल की
इच्छा से अपना कर्तव्य समझ कर कार्य करता है, वही
संन्यासी है और वही योगी है, न
तो अग्नि को त्यागने वाला ही सन्यासी होता है, और
न ही कार्यों को त्यागने वाला ही योगी होता है। 1
हे पाण्डुपुत्र! जिसे संन्यास कहते हैं, उसे ही तू योग (परब्रह्म से मिलन कराने वाला) समझ, क्योंकि इन्द्रिय-सुख (शरीर के सुख) की इच्छा का त्याग किये बिना कभी भी कोई मनुष्य योग (परमात्मा) को प्राप्त नहीं हो सकता है। 2 Astro Motive Astrology by Astrologer Dr. C K Singh
मन को वश में करने की इच्छा वाले मनुष्य को योग
की प्राप्ति के लिये कर्म करना कारण होता है, और
योग को प्राप्त होते-होते सभी सांसारिक इच्छाओं का अभाव हो जाना ही कारण होता है। 3
जब मनुष्य सभी सांसारिक इच्छाओं का त्याग करके, न तो शारीरिक सुख के लिये
कार्य करता है, और न
ही फ़ल की इच्छा से कार्य में प्रवृत होता है, उस
समय वह मनुष्य योग मे स्थित कहलाता है। 4
मनुष्य को चाहिये कि वह अपने मन के द्वारा अपना
जन्म-मृत्यु रूपी बन्धन से उद्धार करने का प्रयत्न करे, और अपने को निम्न-योनि में न
गिरने दे, क्योंकि यह मन ही जीवात्मा का
मित्र है, और यही जीवात्मा का शत्रु भी
है। 5
जो मनुष्य मन को वश में कर लेता है, उसका वह मन ही परम-मित्र बन
जाता है, लेकिन जो मनुष्य मन को वश में
नहीं कर पाता है, उसके
लिए वह मन ही परम-शत्रु के समान होता है। 6
जिसने मन को वश में कर लिया है, उसको परम-शान्ति स्वरूप
परमात्मा पूर्ण-रूप से प्राप्त हो जाता है, उस
मनुष्य के लिये सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख
और मान-अपमान एक समान होते है। 7
ऎसा मनुष्य स्थिर चित्त वाला और इन्द्रियों को
वश में करके, परमात्मा
के ज्ञान द्वारा परमात्मा को प्राप्त करके, पूर्ण
सन्तुष्ट रहता है, ऎसे
परमात्मा को प्राप्त हुए मनुष्य के लिये मिट्टी,
पत्थर
और सोना एक समान होते है। 8 Bhagavad Gita in Hindi
ऎसा मनुष्य स्वभाव से सभी का हित चाहने वाला, मित्रों और शत्रुओं में, तटस्थों और मध्यस्थों में, शुभ-चिन्तकों और ईर्ष्यालुओं में, पुण्यात्माओं और पापात्माओं में भी एक समान भाव रखने वाला होता है। 9
योग के अभ्यास के लिये मनुष्य को एकान्त स्थान में पवित्र भूमि में न तो बहुत ऊँचा और न ही बहुत नीचा, कुशा के आसन पर मुलायम वस्त्र या मृगछाला बिछाकर, उस पर दृड़ता-पूर्वक बैठकर, मन को एक बिन्दु पर स्थित करके, चित्त और इन्द्रिओं की क्रियाओं को वश में रखते हुए अन्तःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करना चाहिये। (11-12) Astro Motive Astrology by Astrologer Dr. C K Singh
योग के अभ्यास के लिये मनुष्य को अपने शरीर, गर्दन तथा सिर को अचल और स्थिर
रखकर, नासिका के आगे के सिरे पर
दृष्टि स्थित करके, इधर-उधर
अन्य दिशाओं को न देखता हुआ, बिना
किसी भय से, इन्द्रिय
विषयों से मुक्त ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित, मन
को भली-भाँति शांत करके, मुझे
अपना लक्ष्य बनाकर और मेरे ही आश्रय होकर, अपने
मन को मुझमें स्थिर करके, मनुष्य
को अपने हृदय में मेरा ही चिन्तन करना चाहिये। (13-14)
इस प्रकार निरन्तर शरीर द्वारा अभ्यास करके, मन को परमात्मा स्वरूप में
स्थिर करके, परम-शान्ति
को प्राप्त हुआ योग में स्थित मनुष्य ही सभी सांसारिक बन्धन से मुक्त होकर मेरे परम-धाम को प्राप्त कर पाता है। 15
हे अर्जुन! योग में स्थित मनुष्य को न तो अधिक
भोजन करना चाहिये और न ही कम भोजन करना चाहिये, न
ही अधिक सोना चाहिये और न ही सदा जागते रहना चाहिये। 16
नियमित भोजन करने वाला, नियमित चलने वाला, नियमित जीवन निर्वाह के लिये
कार्य करने वाला और नियमित सोने वाला योग में स्थित मनुष्य सभी सांसारिक कष्टों से
मुक्त हो जाता है। 17
योग में स्थित मनुष्य का योग के अभ्यास द्वारा विशेष रूप से मन जब आत्मा में स्थित परमात्मा में ही विलीन हो जाता है, तब वह सभी प्रकार की सांसारिक इच्छाओं से मुक्त हो जाता है, उस समय वह पूर्ण रूप से योग में स्थिर कहा जाता है। 18 Astro Motive Astrology by Astrologer Dr. C K Singh
उदाहरण के लिये जिस प्रकार बिना हवा वाले स्थान
में दीपक की लौ बिना इधर-उधर हुए स्थिर रहती है,
उसी
प्रकार योग में स्थित मनुष्य का मन निरन्तर आत्मा में स्थित परमात्मा में स्थिर
रहता है। 19
योग के अभ्यास द्वारा जिस अवस्था में सभी प्रकार
की मानसिक गतिविधियाँ रुक जाती हैं, उस
अवस्था (समाधि) में मनुष्य अपनी ही आत्मा में परमात्मा को साक्षात्कार करके अपनी
ही आत्मा में ही पूर्ण सन्तुष्ट रहता है। 20
तब वह अपनी शुद्ध चेतना द्वारा प्राप्त करने
योग्य परम-आनन्द को शरीर से अलग जानता है, और
उस अवस्था में परमतत्व परमात्मा में स्थित वह योगी कभी भी विचलित नही होता है। 21
परमात्मा को प्राप्त करके वह योग में स्थित
मनुष्य परम-आनन्द को प्राप्त होकर इससे अधिक अन्य कोई सुख नहीं मानता हुआ भरी से
भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता है। 22
मनुष्य को चाहिये कि दृड़-विश्वास के साथ योग का
अभ्यास करते हुए सभी सांसारिक संसर्ग से उत्पन्न दुखों से बिना विचलित हुए है योग
समाधि में स्थित रहकर कार्य करे। 23
मनुष्य को चाहिये मन से उत्पन्न होने वाली सभी
सांसारिक इच्छाओं को पूर्ण-रूप से त्याग कर और मन द्वारा इन्द्रियों के समूह को
सभी ओर से वश में करे। 24
मनुष्य को चाहिये क्रमश: चलकर बुद्धि द्वारा विश्वास-पूर्वक
अभ्यास करता हुआ मन को आत्मा में स्थित करके, परमात्मा
के चिन्तन के अलावा अन्य किसी वस्तु का चिन्तन न करे। 25
मनुष्य को चाहिये स्वभाव से स्थिर न रहने वाला
और सदा चंचल रहने वाला यह मन जहाँ-जहाँ भी प्रकृति में जाये, वहाँ-वहाँ से खींचकर अपनी आत्मा
में ही स्थिर करे। 26
योग में स्थित मनुष्य का मन जब परमात्मा में एक
ही भाव में स्थिर रहता है और जिसकी रज-गुण से उत्पन्न होने वाली कामनायें भली
प्रकार से शांत हो चुकी हैं, ऎसा
योगी सभी पाप-कर्मों से मुक्त होकर परम-आनन्द को प्राप्त करता है। 27
इस प्रकार योग में स्थित मनुष्य निरन्तर योग
अभ्यास द्वारा सभी प्रकार के पापों से मुक्त् होकर सुख-पूर्वक परब्रह्म से एक ही
भाव में स्थिर रहकर दिव्य प्रेम स्वरूप परम-आनंद को प्राप्त करता है। 28
योग में स्थित मनुष्य सभी प्राणीयों मे एक ही
आत्मा का प्रसार देखता है और सभी प्राणीयों को उस एक ही परमात्मा में स्थित देखता
है, ऎसा योगी सभी को एक समान भाव
से देखने वाला होता है। 29
जो मनुष्य सभी प्राणीयों में मुझ परमात्मा को ही
देखता है और सभी प्राणीयों को मुझ परमात्मा में ही देखता है, उसके लिए मैं कभी अदृश्य नहीं
होता हूँ और वह मेरे लिए कभी अदृश्य नहीं होता है। 30
योग में स्थित जो मनुष्य सभी प्राणीयों के हृदय
में मुझको स्थित देखता है और भक्ति-भाव में स्थित होकर मेरा ही स्मरण करता है, वह योगी सभी प्रकार से सदैव
मुझमें ही स्थित रहता है 31
हे अर्जुन! योग में स्थित जो मनुष्य अपने ही समान
सभी प्राणीयों को देखता है, सभी
प्राणीयों के सुख और दुःख को भी एक समान रूप से देखता है, उसी को परम पूर्ण-योगी समझना
चाहिये। 32
अर्जुन ने कहा - हे मधुसूदन! यह योग की विधि
जिसके द्वारा समत्व-भाव दृष्टि मिलती है जिसका कि आपके द्वारा वर्णन किया गया है, मन के चंचलता के कारण मैं इस
स्थिति में स्वयं को अधिक समय तक स्थिर नही देखता हूँ। 33
हे कृष्ण! क्योंकि यह मन निश्चय ही बड़ा चंचल है, अन्य को मथ डालने वाला है और
बड़ा ही हठी तथा बलवान है, मुझे
इस मन को वश में करना, वायु
को वश में करने के समान अत्यन्त कठिन लगता है। 34
श्री भगवान ने कहा - हे महाबाहु कुन्तीपुत्र!
इसमे कोई संशय नही है कि चंचल मन को वश में करना अत्यन्त कठिन है, किन्तु इसे सभी सांसारिक
कामनाओं को त्याग (वैराग्य) और निरन्तर अभ्यास द्वारा वश
में किया जा सकता है। 35
जिस मनुष्य द्वारा मन को वश में नही किया गया है, ऐसे मनुष्य के लिये परमात्मा
की प्राप्ति (योग) असंभव है लेकिन मन को वश में
करने वाले प्रयत्नशील मनुष्य के लिये परमात्मा की प्राप्ति (योग) सहज होता है - ऎसा मेरा विचार
है। 36
अर्जुन ने कहा - हे कृष्ण! प्रारम्भ में
श्रद्धा-पूर्वक योग में स्थिर रहने वाला किन्तु बाद में योग से विचलित मन वाला
असफ़ल-योगी परम-सिद्धि को न प्राप्त करके किस लक्ष्य को प्राप्त करता है? 37
हे महाबाहु कृष्ण! परमात्मा की प्राप्ति के
मार्ग से विचलित हुआ जो कि न तो सांसारिक भोग को ही भोग पाया और न ही आपको प्राप्त
कर सका, ऎसा मोह से ग्रसित मनुष्य क्या
छिन्न-भिन्न बादल की तरह दोनों ओर से नष्ट तो नहीं हो जाता? 38
हे श्रीकृष्ण! मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि
मेरे इस संशय को सम्पूर्ण रूप से केवल आप ही दूर कर सकते हैं क्योंकि आपके
अतिरिक्त अन्य कोई इस संशय को दूर करने वाला मिलना संभव नहीं है। 39
श्री भगवान ने कहा - हे पृथापुत्र! उस असफ़ल योगी का न तो इस जन्म में और न अगले जन्म में ही विनाश होता है, क्योंकि हे प्रिय मित्र! परम-कल्याणकारी नियत-कर्म करने वाला कभी भी दुर्गति को प्राप्त नही होता है। 40 Astro Motive Astrology by Astrologer Dr. C K Singh
योग में असफ़ल हुआ मनुष्य स्वर्ग आदि उत्तम
लोकों को प्राप्त होकर उनमें अनेकों वर्षों तक जिन इच्छाओं के कारण योग-भ्रष्ट हुआ
था, उन इच्छाओं को भोग करके फिर
सम्पन्न सदाचारी मनुष्यों के परिवार में जन्म लेता है। 41
अथवा उत्तम लोकों में न जाकर स्थिर बुद्धि वाले
विद्वान योगियों के परिवार में जन्म लेता है, किन्तु
इस संसार में इस प्रकार का जन्म निःसंदेह अत्यन्त दुर्लभ है। 42
हे कुरुनन्दन! ऎसा जन्म प्राप्त करके वहाँ उसे
पूर्व-जन्म के योग-संस्कार पुन: प्राप्त हो जाते है और उन संस्कारों के प्रभाव से
वह परमात्मा प्राप्ति रूपी परम-सिद्धि को प्राप्त करने के उद्देश्य फिर से प्रयत्न
करता है। 43
पूर्व जन्म के अभ्यास के कारण वह निश्चित रूप से
परमात्म-पथ की ओर स्वत: ही आकर्षित हो जाता है, ऎसा
जिज्ञासु योगी शास्त्रों के अनुष्ठानों का उल्लंघन करके योग में स्थित हो जाता है।
44
ऎसा योगी समस्त पाप-कर्मों से शुद्ध होकर अनेक
जन्मों के कठिन अभ्यास से इस जन्म में प्रयत्न करते हुए परम-सिद्धि को प्राप्त
करने के पश्चात् परम-गति को प्राप्त करता है। 45
तपस्वियों से योगी श्रेष्ठ है, शास्त्र-ज्ञानियों से भी योगी
श्रेष्ठ माना जाता है और सकाम कर्म करने वालों की अपेक्षा भी योगी श्रेष्ठ है, इसलिये हे अर्जुन! तू योगी बन।
46
सभी प्रकार के योगियों में से जो पूर्ण-श्रद्धा सहित, सम्पूर्ण रूप से मेरे आश्रित हुए अपने अन्त:करण से मुझको निरन्तर स्मरण (दिव्य प्रेमाभक्ति) करता है, ऎसा योगी मेरे द्वारा परम-योगी माना जाता है। 47
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