Geeta Saar Bhagwat Geeta Hindi Geeta Bhagavad Gita Chapter 11
||श्रीमद भगवद गीता||
“अध्याय 11 - विश्व रूप दर्शन योग”
Astro Motive Astrology by Astrologer Dr. C K Singh |
श्रीमद भगवद गीता 11, Geeta Saar, Bhagwat Geeta, Hindi Geeta, गीता सार, गीता ज्ञान, गीता उपदेश, गीता श्लोक, भगवत गीता, संपूर्ण गीता पाठ Astro Motive Astrology by Astrologer Dr. C K Singh
अर्जुन ने कहा - मुझ पर कृपा करने के लिए आपने
जो परम-गोपनीय अध्यात्मिक विषयक ज्ञान दिया है, उस
उपदेश से मेरा यह मोह दूर हो गया है। 1
हे कमलनयन! मैंने आपसे समस्त सृष्टि की उत्पत्ति
तथा प्रलय और आपकी अविनाशी महिमा का भी वर्णन विस्तार से सुना हैं। 2
हे परमेश्वर! इस प्रकार यह जैसा आप के द्वारा
वर्णित आपका वास्तविक रूप है मैं वैसा ही देख रहा हूँ, किन्तु हे पुरुषोत्तम! मै आपके
ऐश्वर्य-युक्त रूप को मैं प्रत्यक्ष दर्शन करना चाहता हूँ। 3
हे प्रभु! यदि आप उचित मानते हैं कि मैं आपके उस
रूप को देखने में समर्थ हूँ, तब
हे योगेश्वर! आप कृपा करके मुझे अपने उस अविनाशी विश्वरूप में दर्शन दीजिये। 4
श्री भगवान ने कहा - हे पार्थ! अब तू मेरे
सैकड़ों-हजारों अनेक प्रकार के अलौकिक रूपों को और अनेक प्रकार के रंगो वाली
आकृतियों को भी देख। 5
हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन! तू मुझमें अदिति के बारह
पुत्रों को, आठों
वसुओं को, ग्यारह रुद्रों को, दोनों अश्विनी कुमारों को, उनचासों मरुतगणों को और इसके
पहले कभी किसी के द्वारा न देखे हुए उन अनेकों आश्चर्यजनक रूपों को भी देख। 6 Geeta Saar Bhagwat Geeta
हे अर्जुन! तू मेरे इस शरीर में एक स्थान में
चर-अचर सृष्टि सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को देख और अन्य कुछ भी तू देखना चाहता है
उन्हे भी देख। 7
किन्तु तू अपनी इन आँखो की दृष्टि से मेरे इस
रूप को देखने में निश्चित रूप से समर्थ नहीं है,
इसलिये
मैं तुझे अलौकिक दृष्टि देता हूँ, जिससे
तू मेरी इस ईश्वरीय योग-शक्ति को देख। 8
संजय ने कहा - हे राजन्! इस प्रकार कहकर परम-शक्तिशाली
योगी भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को अपना परम ऐश्वर्य-युक्त अलौकिक विश्वरूप
दिखलाया। 9
इस विश्वरूप में अनेकों मुँह, अनेकों आँखे, अनेकों आश्चर्यजनक
दिव्य-आभूषणों से युक्त, अनेकों
दिव्य-शस्त्रों को उठाये हुए, दिव्य-मालाऎँ, वस्त्र को धारण किये हुए, दिव्य गन्ध का अनुलेपन किये
हुए, सभी प्रकार के आश्चर्यपूर्ण
प्रकाश से युक्त, असीम
और सभी दिशाओं में मुख किए हुए सर्वव्यापी परमेश्वर को अर्जुन ने देखा। 10-11
पाण्डुपुत्र अर्जुन ने उस समय अनेक प्रकार से
अलग-अलग सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को सभी देवताओं के भगवान श्रीकृष्ण के उस शरीर में एक
स्थान में स्थित देखा। 13
तब आश्चर्यचकित,
हर्ष
से रोमांचित हुए शरीर से अर्जुन ने भगवान को सिर झुकाकर प्रणाम करके और हाथ जोड़कर
प्रार्थना करते हुए बोला। 14
अर्जुन ने कहा - हे भगवान श्रीकृष्ण! मैं आपके
शरीर में समस्त देवताओं को तथा अनेकों विशेष प्राणीयों को एक साथ देख रहा हूँ, और कमल के आसन पर स्थित
ब्रह्मा जी को, शिव
जी को, समस्त ऋषियों को और दिव्य
सर्पों को भी देख रहा हूँ। 15
हे विश्वेश्वर! मैं आपके शरीर में अनेकों हाथ, पेट, मुख और आँखें तथा चारों ओर से
असंख्य रूपों को देख रहा हूँ, हे
विश्वरूप! न तो मैं आपका अन्त, न
मध्य और न आदि को ही देख पा रहा हूँ। 16
मैं आपको चारों ओर से मुकुट पहने हुए, गदा धारण किये हुए और चक्र
सहित अपार तेज से प्रकाशित देख रहा हूँ, और
आपके रूप को सभी ओर से अग्नि के समान जलता हुआ, सूर्य
के समान चकाचौंध करने वाले प्रकाश को कठिनता से देख पा रहा हूँ। 17
हे भगवन! आप ही जानने योग्य परब्रह्म परमात्मा
हैं, आप ही इस जगत के परम-आधार हैं, आप ही अविनाशी सनातन धर्म के
पालक हैं और मेरी समझ से आप ही अविनाशी सनातन पुरुष हैं। 18
आप अनादि है, अनन्त
है और मध्य-रहित हैं, आपकी
महिमा अनन्त है, आपकी
असंख्य भुजाएँ है, चन्द्र
और सूर्य आपकी आँखें है, मैं
आपके मुख से जलती हुई अग्नि के निकलने वाले तेज के कारण इस संसार को तपते हुए देख
रहा हूँ। 19
हे महापुरूष! सम्पूर्ण आकाश से लेकर पृथ्वी तक
के बीच केवल आप ही अकेले सभी दिशाओं में व्याप्त हैं और आपके इस भयंकर आश्चर्यजनक
रूप को देखकर तीनों लोक भयभीत हो रहे हैं। 20
सभी देवों के समूह आप में प्रवेश कर रहे हैं
उनमें से कुछ भयभीत होकर हाथ जोड़कर आपका गुणगान कर रहे हैं, और महर्षिगण और सिद्धों के
समूह 'कल्याण हो' इस प्रकार कहकर उत्तम वैदिकस्तोत्रों द्वारा आपकी स्तुति कर रहे हैं। 21
शिव के सभी रूप,
सभी
आदित्यगण, सभी वसु, सभी साध्यगण, सम्पूर्ण विश्व के देवता, दोनों अश्विनी कुमार तथा समस्त
मरुतगण और पितरों का समूह, सभी
गंधर्व, सभी यक्ष, समस्त राक्षस और सिद्धों के
समूह वह सभी आश्चर्यचकित होकर आपको देख रहे हैं। 22
हे महाबाहु! आपके अनेकों मुख, आँखें, अनेको हाथ, जंघा, पैरों, अनेकों पेट और अनेक दाँतों के कारण विराट रूप को देखकर सभी लोक व्याकुल हो रहे हैं और उन्ही की तरह मैं भी व्याकुल हो रहा हूँ। 23 Astro Motive Astrology by Astrologer Dr. C K Singh
हे विष्णो! आकाश को स्पर्श करता हुआ, अनेको प्रकाशमान रंगो से युक्त
मुख को फैलाये हुए और आपकी चमकती हुई बड़ी-बड़ी आँखों को देखकर मेरा मन भयभीत हो
रहा है, मैं न तो धैर्य धारण कर पा रहा
हूँ और न ही शान्ति को प्राप्त कर पा रहा हूँ। 24
इस प्रकार दाँतों के कारण विकराल और प्रलयंकारी की अग्नि के समान आपके मुखों को देखकर मैं आपकी न तो कोई दिशा को जान पा रहा हूँ
और न ही सुख पा रहा हूँ, इसलिए
हे देवेश! हे जगन्निवास! आप मुझ पर प्रसन्न हों। 25
धृतराष्ट्र के सभी पुत्र अपने समस्त सहायक वीर
राजाओं के सहित तथा पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य, सूत पुत्र कर्ण और हमारे पक्ष
के भी प्रधान योद्धा भी आपके भयानक दाँतों वाले विकराल मुख में तेजी से प्रवेश कर
रहे हैं, और उनमें से कुछ तो दाँतों के
दोनों शिरों के बीच में फ़ंसकर चूर्ण होते हुए दिखाई दे रहे हैं। 26-27
जिस प्रकार नदियों की अनेकों जल धारायें बड़े वेग से समुद्र की ओर दौड़तीं हुयी प्रवेश करती हैं, उसी प्रकार सभी मनुष्य लोक के वीर योद्धा भी आपके आग उगलते हुए मुखों में प्रवेश कर रहे हैं। 28 Astro Motive Astrology by Astrologer Dr. C K Singh
जिस प्रकार पतंगे अपने विनाश के लिये जलती हुयी
अग्नि में बड़ी तेजी से प्रवेश करते हैं, उसी
प्रकार यह सभी लोग भी अपने विनाश के लिए बहुत तेजी से आपके मुखों में प्रवेश कर
रहे हैं। 29
हे विश्वव्यापी भगवान! आप उन समस्त लोगों को
जलते हुए सभी मुखों द्वारा निगलते हुए सभी ओर से चाट रहे हैं, और आपके भयंकर तेज प्रकाश की
किरणें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को आच्छादित करके झुलसा रहीं है। 30
हे सभी देवताओं में श्रेष्ठ! कृपा करके आप मुझे
बतलाइए कि आप इतने भयानक रूप वाले कौन हैं? मैं
आपको नमस्कार करता हूँ, आप
मुझ पर प्रसन्न हों, आप
ही निश्चित रूप से आदि भगवान हैं, मैं
आपको विशेष रूप से जानना चाहता हूँ क्योंकि मैं आपके स्वभाव को नहीं जानता हूँ। 31
श्री भगवान ने कहा - मैं इस सम्पूर्ण संसार का
नष्ट करने वाला महाकाल हूँ, इस
समय इन समस्त प्राणीयों का नाश करने के लिए लगा हुआ हूँ, यहाँ स्थित सभी विपक्षी पक्ष
के योद्धा तेरे युद्ध न करने पर भी भविष्य में नही रहेंगे। 32
हे सव्यसाची! इसलिये तू यश को प्राप्त करने के
लिये युद्ध करने के लिये खडा़ हो और शत्रुओं को जीतकर सुख सम्पन्न राज्य का भोग कर, यह सभी पहले ही मेरे ही द्वारा
मारे जा चुके हैं, तू
तो युद्ध में केवल निमित्त बना रहेगा। 33
द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण और भी अन्य अनेक मेरे
द्वारा मारे हुए इन महान योद्धाओं से तू बिना किसी भय से विचलित हुए युद्ध कर, इस युद्ध में तू ही निश्चित
रूप से शत्रुओं को जीतेगा। 34
संजय ने कहा - भगवान के इन वचनों को सुनकर
अर्जुन ने हाथ जोड़कर बारम्बार नमस्कार किया, और
फ़िर अत्यन्त भय से कांपता हुआ प्रणाम करके अवरुद्ध स्वर से भगवान श्रीकृष्ण से
बोला। 35
अर्जुन ने कहा - हे अन्तर्यामी प्रभु! यह उचित
ही है कि आपके नाम के कीर्तन से सम्पूर्ण संसार अत्यन्त हर्षित होकर आपके प्रति
अनुरक्त हो रहा है तथा आसुरी स्वभाव के प्राणी आपके भय के कारण इधर-उधर भाग रहे
हैं और सभी सिद्ध पुरुष आपको नमस्कार कर रहे हैं। 36
हे महात्मा! यह सभी श्रेष्ठजन आपको नमस्कार क्यों न करें क्योंकि आप ही ब्रह्मा को भी उत्पन्न करने वाले हैं, हे अनन्त! हे देवादिदेव! हे
जगत के आश्रय! आप अविनाशी, समस्त
कारणों के मूल कारण, और
आप ही परमतत्व है। 37
आप आदि देव सनातन पुरुष हैं, आप इस संसार के परम आश्रय हैं, आप जानने योग्य हैं तथा आप ही
जानने वाले हैं, आप ही
परम धाम हैं और आप के ही द्वारा यह संसार अनन्त रूपों में व्याप्त हैं। 38
आप वायु, यम, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा तथा सभी प्राणीयों के
पिता ब्रह्मा भी है और आप ही ब्रह्मा के पिता भी हैं, आपको बारम्बार नमस्कार! आपको
हजारों बार नमस्कार! नमस्कार हो!! फिर भी आपको बार-बार नमस्कार! करता हूँ। 39
हे असीम शक्तिमान! मैं आपको आगे से, पीछे से और सभी ओर से ही
नमस्कार करता हूँ क्योंकि आप ही सब कुछ है, आप
अनन्त पराक्रम के स्वामी है, आप
ही से समस्त संसार व्याप्त हैं, अत:
आप ही सब कुछ हैं। 40
आपको अपना मित्र मानकर मैंने हठपूर्वक आपको हे
कृष्ण!, हे यादव! हे सखा! इस प्रकार
आपकी महिमा को जाने बिना मूर्खतावश या प्रेमवश जो कुछ कहा है, हे अच्युत! यही नही हँसी-मजाक
में आराम करते हुए, सोते
हुए, वैठते हुए या भोजन करते हुए, कभी अकेले में या कभी मित्रों
के सामने मैंने आपका जो अनादर किया हैं उन सभी अपराधों के लिये मैं क्षमा माँगता
हूँ। 41-42
आप इस चल और अचल जगत के पिता और आप ही इस जगत
में पूज्यनीय आध्यात्मिक गुरु हैं, हे
अचिन्त्य शक्ति वाले प्रभु! तीनों लोकों में अन्य न तो कोई आपके समान हो सकता हैं
और न ही कोई आपसे बढकर हो सकता है। 43
अत: मैं
समस्त जीवों के पूज्यनीय भगवान के चरणों में गिरकर साष्टाँग प्रणाम करके आपकी कृपा
के लिए प्रार्थना करता हूँ, हे
मेरे प्रभु! जिस प्रकार पिता अपने पुत्र के अपराधों को, मित्र अपने मित्र के अपराधों
को और प्रेमी अपनी प्रिया के अपराधों को सहन कर लेता हैं उसी प्रकार आप मेरे
अपराधों को सहन करने की कृपा करें। 44
पहले कभी न देखे गये आपके इस रूप को देखकर मैं
हर्षित हो रहा हूँ और साथ ही मेरा मन भय के कारण विचलित भी हो रहा है, इसलिए हे देवताओं के स्वामी!
हे जगत के आश्रय! आप मुझ पर प्रसन्न होकर अपने पुरूषोत्तम रूप को मुझे दिखलाइये। 45
हे हजारों भुजाओं वाले विराट स्वरूप भगवान! मैं
आपके मुकुट धारण किए हुए और हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म लिए रूप का दर्शन
करना चाहता हूँ, कृपा
करके आप चतुर्भुज रूप में प्रकट हों। 46
श्री भगवान ने कहा - हे अर्जुन! मैंने प्रसन्न
होकर अपनी अन्तरंगा शक्ति के प्रभाव से तुझे अपना दिव्य विश्वरूप दिखाया है, मेरे इस तेजोमय, अनन्त विश्वरूप को तेरे
अतिरिक्त अन्य किसी के द्वारा पहले कभी नहीं देखा गया है। 47
हे कुरुश्रेष्ठ! मेरे इस विश्वरूप को मनुष्य लोक
में न तो यज्ञों के द्वारा, न
वेदों के अध्ययन द्वारा, न
दान के द्वारा, न
पुण्य कर्मों के द्वारा और न कठिन तपस्या द्वारा ही देखा जाना संभव है, मेरे इस विश्वरूप को तेरे
अतिरिक्त अन्य किसी के द्वारा पहले कभी नहीं देखा गया है। 48
हे मेरे परम-भक्त! तू मेरे इस विकराल रूप को देखकर न तो अधिक विचलित हो, और न ही मोहग्रस्त हो, अब तू पुन: सभी चिन्ताओं से मुक्त होकर प्रसन्न-चित्त से मेरे इस चतुर्भुज रूप को देख। 49 Astro Motive Astrology by Astrologer Dr. C K Singh
संजय ने कहा - वासुदेव भगवान श्री कृष्ण ने
अर्जुन से इस प्रकार कहने के बाद अपना विष्णु स्वरूप चतुर्भुज रूप को प्रकट किया
और फिर दो भुजाओं वाले मनुष्य स्वरूप को प्रदर्शित करके भयभीत अर्जुन को धैर्य
बँधाया। 50
अर्जुन ने कहा - हे जनार्दन! आपके इस अत्यन्त
सुन्दर मनुष्य रूप को देखकर अब मैं स्थिर चित्त हो गया हूँ और अपनी स्वाभाविक
स्थिति को प्राप्त हो गया हूँ। 51
श्री
भगवान ने कहा - मेरा जो चतुर्भज रूप तुमने देखा है,
उसे
देख पाना अत्यन्त दुर्लभ है देवता भी इस शाश्वत रूप के दर्शन की आकांक्षा करते
रहते हैं। 52
मेरे इस चतुर्भुज रूप को जिसको तेरे द्वारा देखा
गया है इस रूप को न वेदों के अध्यन से, न
तपस्या से, न दान
से और न यज्ञ से ही देखा जाना संभव है। 53
हे परन्तप अर्जुन! केवल अनन्य भक्ति के द्वारा
ही मेरा साक्षात दर्शन किया जा सकता है, वास्तविक
स्वरूप को जाना जा सकता है और इसी विधि से मुझमें प्रवेश भी पाया जा सकता है। 54
हे पाण्डुपुत्र! जो मनुष्य केवल मेरी शरण होकर मेरे ही लिए सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को करता है, मेरी भक्ति में स्थित रहता है, सभी कामनाओं से मुक्त रहता है और समस्त प्राणियों से मैत्रीभाव रखता है, वह मनुष्य निश्चित रूप से मुझे ही प्राप्त करता है। 55 Astro Motive Astrology by Astrologer Dr. C K Singh
0 टिप्पणियाँ