||श्रीमद भगवद गीता||
“अध्याय 3 - कर्म-योग”
अर्जुन ने कहा - हे जनार्दन! हे केशव! यदि आप निष्काम-कर्म मार्ग की अपेक्षा ज्ञान-मार्ग को श्रेष्ठ समझते है तो फिर मुझे भयंकर कर्म (युद्ध) में क्यों लगाना चाहते हैं? 1
आप अनेक अर्थ वाले शब्दों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं, अत: इनमें से मेरे लिये जो एकमात्र श्रेयस्कर हो उसे कृपा करके निश्चय-पूर्वक मुझे बतायें, जिससे में उस श्रेय को प्राप्त कर सकूँ। 2
श्रीभगवान ने कहा - हे निष्पाप अर्जुन! इस संसार में आत्म-साक्षात्कार की दो प्रकार की विधियाँ पहले भी मेरे द्वारा कही गयी हैं,
ज्ञानीयों के लिये ज्ञान-मार्ग (
सांख्य-योग) और योगियों के लिये निष्काम कर्म-मार्ग (
भक्ति-योग) नियत है। 3
Astro Motive Astrology by Astrologer Dr. C K Singh
मनुष्य न तो बिना कर्म किये कर्म-बन्धनों से मुक्त हो सकता है और न ही कर्मों के त्याग (सन्यास) मात्र से सफ़लता (सिद्धि) को प्राप्त हो सकता है। 4
कोई भी मनुष्य किसी भी समय में क्षण-मात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता है क्योंकि प्रत्येक मनुष्य प्रकृति से उत्पन्न गुणों द्वारा विवश होकर कर्म करता है। 5
जो मनुष्य कर्म-इन्द्रियों को वश में तो करता है किन्तु मन से इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, ऎसा मूर्ख जीव मिथ्याचारी कहलाता है। 6 Shrimad Bhagwat Geeta
जो मनुष्य मन के द्वारा इन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करता है और बिना किसी आसक्ति के कर्म-योग (निष्काम कर्म-योग) का आचरण करता है, वही सभी मनुष्यों में अति-उत्तम मनुष्य है। 7
तू अपना नियत कर्तव्य-कर्म कर क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है,
कर्म न करने से तो तेरी यह जीवन-यात्रा भी सफ़ल नही हो सकती है। 8
यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है इस यज्ञ की प्रक्रिया के अतिरिक्त जो भी किया जाता है उससे जन्म-मृत्यु रूपी बन्धन उत्पन्न होता है, अत: हे कुन्तीपुत्र! उस यज्ञ की पूर्ति के लिये संग-दोष से मुक्त रहकर भली-भाँति कर्म का आचरण कर। 9 Shrimad Bhagwat Geeta
सृष्टि के प्रारम्भ में प्रजापति ब्रह्मा ने यज्ञ सहित देवताओं और मनुष्यों को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ द्वारा सुख-समृध्दि को प्राप्त करो और यह यज्ञ तुम लोगों की इष्ट (परमात्मा) संबन्धित कामना की पूर्ति करेगा। 10
इस यज्ञ द्वारा देवताओं की उन्नति करो और वे देवता तुम लोगों की उन्नति करेंगे, इस तरह एक-दूसरे की उन्नति करते हुए तुम लोग परम-कल्याण (परमात्मा)को प्राप्त हो जाओगे। 11
यज्ञ द्वारा उन्नति को प्राप्त देवता तुम लोगों की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करेंगे, किन्तु जो मनुष्य देवताओं द्वारा दिए हुए सुख-भोगों को उनको दिये बिना ही स्वयं भोगता है, उसे निश्चित-रूप से चोर समझना चाहिये। 12 Shrimad Bhagwat Geeta
यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले भक्त सब पापों से मुक्त हो जाते हैं किन्तु अन्य लोग जो अपने इन्द्रिय-सुख के लिए ही भोजन पकाते हैं,
वे तो पाप ही खाते हैं। 13
सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वर्षा से होती है, वर्षा की उत्पत्ति यज्ञ सम्पन्न करने से होती है और यज्ञ की उत्पत्ति नियत-कर्म (वेद की आज्ञानुसार कर्म) के करने से होती है। 14 Shrimad Bhagwat Geeta Astro Motive Astrology by Astrologer Dr. C K Singh
नियत कर्मों का विधान वेद में निहित है और वेद को शब्द-रूप से अविनाशी परमात्मा से साक्षात् उत्पन्न समझना चाहिये, इसलिये सर्वव्यापी परमात्मा ब्रह्म-रूप में यज्ञ में सदा स्थित रहता है। 15
जो मनुष्य जीवन में इस प्रकार वेदों द्वारा स्थापित यज्ञ-चक्र(नियत-कर्म) का अनुसरण नहीं करता हैं, वह निश्चय ही पापमय जीवन व्यतीत करता है। ऎसा मनुष्य इन्द्रियों की तुष्टि के लिये व्यर्थ ही जीता है। 16 Astro Motive Astrology by Astrologer Dr. C K Singh
परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही आनन्द प्राप्त कर लेता है तथा वह अपनी आत्मा मे ही पूर्ण-सन्तुष्ट रहता है, उसके लिए कोई नियत-कर्म (कर्तव्य) शेष नहीं रहता है। 17
उस महापुरुष के लिये इस संसार में न तो कर्तव्य-कर्म करने की आवश्यकता रह जाती है और न ही कर्म को न करने का कोई कारण ही रहता है तथा उसे समस्त प्राणियों में से किसी पर निर्भर रहने की आवश्यकता नही रहती है। 18
अत: कर्म-फ़ल में आसक्त हुए बिना मनुष्य को अपना कर्तव्य समझ कर कर्म करते रहना चाहिये क्योंकि अनासक्त भाव से निरन्तर कर्तव्य-कर्म करने से मनुष्य को एक दिन परमात्मा की प्रप्ति हो जाती है। 19 Shrimad Bhagwat Geeta
राजा जनक जैसे अन्य मनुष्यों ने भी केवल कर्तव्य-कर्म करके ही परम-सिद्धि को प्राप्त की है,
अत: संसार के हित का विचार करते हुए भी तेरे लिये कर्म करना ही उचित है। 20
महापुरुष जो-जो आचरण करता है, सामान्य मनुष्य भी उसी का ही अनुसरण करते हैं, वह श्रेष्ठ-पुरुष जो कुछ आदर्श प्रस्तुत कर देता है, समस्त संसार भी उसी का अनुसरण करने लगता है। 21
तीनों लोकों में मेरे लिये कोई भी कर्तव्य शेष नही है न ही किसी वस्तु का अभाव है न ही किसी वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा है, फ़िर भी मैं कर्तव्य समझ कर कर्म करने में लगा रहता हूँ। 22
यदि मैं नियत-कर्मों को सावधानी-पूर्वक न करूँ तो यह निश्चित है कि सभी मनुष्य मेरे ही मार्ग का ही अनुगमन करेंगे। 23 Shrimad Bhagwat Geeta
इसलिए यदि मैं कर्तव्य समझ कर कर्म न करूँ तो ये सभी लोक भ्रष्ट हो जायेंगे तब मैं अवांछित-सृष्टि की उत्पत्ति का कारण हो जाऊँगा और इस प्रकार समस्त प्राणीयों को नष्ट करने वाला बन जाऊँगा। 24
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जिस प्रकार अज्ञानी मनुष्य फ़ल की इच्छा से कार्य (सकाम-कर्म) करते हैं, उसी प्रकार विद्वान मनुष्य को फ़ल की इच्छा के बिना संसार के कल्याण के लिये कार्य करना चाहिये। 25
विद्वान महापुरूष को चाहिए कि वह फ़ल की इच्छा वाले (सकाम-कर्मी)अज्ञानी मनुष्यों को कर्म करने से रोके नही जिससे उनकी बुद्धि भ्रमित न हो, बल्कि स्वयं कर्तव्य-कर्म को भली-प्रकार से करता हुआ उनसे भी भली-भाँति कराते रहना चाहिये। 26 Shrimad Bhagwat Geeta
जन्म से लेकर मृत्यु तक के सभी कर्म प्रकृति के गुणों के द्वारा सम्पन्न किए जाते हैं, अहंकार के प्रभाव से मोह-ग्रस्त होकर अज्ञानी मनुष्य स्वयं को कर्ता मानने लगता है। 27
परमतत्व को जानने वाला महापुरूष इन्द्रियों को और इन्द्रियों की क्रियाशीलता को प्रकृति के गुणों के द्वारा करता हुआ मानकर कभी उनमें आसक्त नहीं होता है। 28
माया के प्रभाव से मोह-ग्रस्त हुए मनुष्य सांसारिक कर्मों के प्रति आसक्त होकर कर्म में लग जाते हैं, अत: पूर्ण ज्ञानी मनुष्य को चाहिये कि वह उन मन्द-बुद्धि (सकाम-कर्मी) वालों को विचलित न करे। 29 Shrimad Bhagwat Geeta
अपने सभी प्रकार के कर्तव्य-कर्मों को मुझमें समर्पित करके पूर्ण आत्म-ज्ञान से युक्त होकर, आशा, ममता, और सन्ताप का पूर्ण रूप से त्याग करके युद्ध कर। 30
जो मनुष्य मेरे इन आदेशों का ईर्ष्या-रहित होकर, श्रद्धा-पूर्वक अपना कर्तव्य समझ कर नियमित रूप से पालन करते हैं, वे सभी कर्मफ़लों के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं। 31
परन्तु जो मनुष्य ईर्ष्यावश इन आदेशों का नियमित रूप से पालन नही करते हैं, उन्हे सभी प्रकार के ज्ञान में पूर्ण रूप से भ्रमित और सब ओर से नष्ट-भ्रष्ट हुआ ही समझना चाहिये। 32
सभी मनुष्य प्रकृति के गुणों के अधीन होकर ही कार्य करते हैं, यधपि तत्वदर्शी ज्ञानी भी प्रकृति के गुणों के अनुसार ही कार्य करता दिखाई देता है, तो फिर इसमें कोई किसी का निराकरण क्या कर सकता है? 33 Shrimad Bhagwat Geeta
सभी इन्द्रियाँ और इन्द्रियों के विषयों के प्रति आसक्ति (राग) और विरक्ति (द्वेष) नियमों के अधीन स्थित होती है, मनुष्य को इनके आधीन नहीं होना चाहिए, क्योंकि दोनो ही आत्म-साक्षात्कार के पथ में अवरोध उत्पन्न करने वाले हैं। 34
दूसरों के कर्तव्य (धर्म) को भली-भाँति अनुसरण (नकल) करने की अपेक्षा अपना कर्तव्य-पालन (स्वधर्म) को दोष-पूर्ण ढंग से करना भी अधिक कल्याणकारी होता है। दूसरे के कर्तव्य का अनुसरण करने से भय उत्पन्न होता है, अपने कर्तव्य का पालन करते हुए मरना भी श्रेयस्कर होता है। 35 Shrimad Bhagwat Geeta Astro Motive Astrology by Astrologer Dr. C K Singh
अर्जुन ने कहा - हे वृष्णिवंशी! मनुष्य न चाहते हुए भी किस की प्रेरणा से पाप-कर्म करता है, यधपि ऎसा लगता है कि उसे बल-पूर्वक पाप-कर्म के लिये प्रेरित किया जा रहा है। 36
श्री भगवान ने कहा - इसका कारण रजोगुण से उत्पन्न होने वाले काम(विषय-वासना) और क्रोध बडे़ पापी है, तू इन्हे ही इस संसार में अग्नि के समान कभी न तृप्त होने वाले महान-शत्रु समझ। 37
जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और धूल से दर्पण ढक जाता है तथा जिस प्रकार गर्भाशय से गर्भ ढका रहता है,
उसी प्रकार कामनाओं से ज्ञान ढका रहता है। 38
Shrimad Bhagwat Geeta
हे कुन्तीपुत्र!! इस प्रकार शुद्ध चेतन स्वरूप जीवात्मा का ज्ञान कामना रूपी नित्य शत्रु द्वारा ढका रहता है जो कभी भी तुष्ट न होने वाली अग्नि की तरह जलता रहता है। 39
इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि कामनाओं के निवास-स्थान होते हैं, इनके द्वारा कामनायें ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोह-ग्रस्त कर देती हैं। 40 Shrimad Bhagwat Geeta
अत: हे भरतवंशियों मे श्रेष्ठ! तू प्रारम्भ में ही इन्द्रियों को वश में करके और आत्म-ज्ञान और आत्म-साक्षात्कार में बाधा उत्पन्न करने वाली इन महान-पापी कामनाओं का ही बल-पूर्वक समाप्त कर। 41
इस जड़ पदार्थ शरीर की अपेक्षा इन्द्रियाँ श्रेष्ठ है, इन्द्रियों की अपेक्षा मन श्रेष्ठ है, मन की अपेक्षा बुद्धि श्रेष्ठ है और जो बुद्धि से भी श्रेष्ठ है तू वही सर्वश्रेष्ठ शुद्ध स्वरूप आत्मा है। 42
स्वयं को मन और बुद्धि से श्रेष्ठ आत्मा-रूप समझकर, बुद्धि के द्वारा मन को स्थिर करके तू कामनाओं रूपी दुर्जय शत्रुओं को मार। 43 Shrimad Bhagwat Geeta
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