Bhagavad Gita Geeta Saar Hindi Geeta Spiritual Chapter 18
||श्रीमद भगवद गीता||
“अध्याय 18 - मोक्ष सन्यास योग”
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Astro Motive Astrology by Astrologer Dr. C K Singh |
श्री भगवान बोले- कितने ही पण्डितजन तो काम्य
कर्मों के (स्त्री, पुत्र
और धन आदि प्रिय वस्तुओं की प्राप्ति के लिए तथा रोग-संकटादि की निवृत्ति के लिए
जो यज्ञ, दान, तप और उपासना आदि कर्म किए
जाते हैं, उनका नाम काम्यकर्म है।) त्याग
को संन्यास समझते हैं तथा दूसरे विचारकुशल पुरुष सब कर्मों के फल के त्याग को
(ईश्वर की भक्ति, देवताओं
का पूजन, माता-पितादि गुरुजनों की सेवा, यज्ञ, दान और तप तथा वर्णाश्रम के
अनुसार आजीविका द्वारा गृहस्थ का निर्वाह एवं शरीर संबंधी खान-पान इत्यादि जितने
कर्तव्यकर्म हैं, उन
सबमें इस लोक और परलोक की सम्पूर्ण कामनाओं के त्याग का नाम सब कर्मों के फल का
त्याग है) त्याग कहते हैं। 2
कई एक विद्वान ऐसा कहते हैं कि कर्ममात्र
दोषयुक्त हैं, इसलिए
त्यागने के योग्य हैं और दूसरे विद्वान यह कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्यागने
योग्य नहीं हैं। 3
हे पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन ! संन्यास और त्याग, इन दोनों में से पहले त्याग के
विषय में तू मेरा निश्चय सुन। क्योंकि त्याग सात्विक, राजस और तामस भेद से तीन
प्रकार का कहा गया है। 4
यज्ञ, दान
और तपरूप कर्म त्याग करने के योग्य नहीं है, बल्कि
वह तो अवश्य कर्तव्य है, क्योंकि
यज्ञ, दान और तप -ये तीनों ही कर्म
बुद्धिमान पुरुषों को (वह मनुष्य बुद्धिमान है, जो
फल और आसक्ति को त्याग कर केवल भगवदर्थ कर्म करता है।) पवित्र करने वाले हैं। 5
इसलिए हे पार्थ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और
भी सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिए, यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम
मत है। 6
(निषिद्ध
और काम्य कर्मों का तो स्वरूप से त्याग करना उचित ही है) परन्तु नियत कर्म का (इसी
अध्याय के श्लोक 48 की
टिप्पणी में इसका अर्थ देखना चाहिए।) स्वरूप से त्याग करना उचित नहीं है। इसलिए
मोह के कारण उसका त्याग कर देना तामस त्याग कहा गया है। 7
जो कुछ कर्म है वह सब दुःखरूप ही है- ऐसा समझकर
यदि कोई शारीरिक क्लेश के भय से कर्तव्य-कर्मों का त्याग कर दे, तो वह ऐसा राजस त्याग करके
त्याग के फल को किसी प्रकार भी नहीं पाता। 8
हे अर्जुन! जो शास्त्रविहित कर्म करना कर्तव्य
है- इसी भाव से आसक्ति और फल का त्याग करके किया जाता है- वही सात्त्विक त्याग
माना गया है। 9
जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता- वह शुद्ध सत्त्वगुण से युक्त पुरुष संशयरहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है। 10
क्योंकि शरीरधारी किसी भी मनुष्य द्वारा
सम्पूर्णता से सब कर्मों का त्याग किया जाना शक्य नहीं है, इसलिए जो कर्मफल त्यागी है, वही त्यागी है- यह कहा जाता
है। 11
कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों के कर्मों
का तो अच्छा, बुरा
और मिला हुआ- ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के पश्चात अवश्य होता है, किन्तु कर्मफल का त्याग कर
देने वाले मनुष्यों के कर्मों का फल किसी काल में भी नहीं होता। 12
हे महाबाहो! सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि के ये
पाँच हेतु कर्मों का अंत करने के लिए उपाय बतलाने वाले सांख्य-शास्त्र में कहे गए
हैं, उनको तू मुझसे भलीभाँति जान। 13
इस विषय में अर्थात कर्मों की सिद्धि में
अधिष्ठान (जिसके आश्रय कर्म किए जाएँ, उसका
नाम अधिष्ठान है) और कर्ता तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के करण (जिन-जिन इंद्रियादिकों
और साधनों द्वारा कर्म किए जाते हैं, उनका
नाम करण है) एवं नाना प्रकार की अलग-अलग चेष्टाएँ और वैसे ही पाँचवाँ हेतु दैव
(पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मों के संस्कारों का नाम दैव है) है। 14
मनुष्य मन, वाणी और शरीर से शास्त्रानुकूल अथवा विपरीत जो कुछ भी कर्म करता है- उसके ये पाँचों कारण हैं। 15 Astro Motive Astrology by Astrologer Dr. C K Singh
परन्तु ऐसा होने पर भी जो मनुष्य अशुद्ध बुद्धि (सत्संग और शास्त्र के अभ्यास से तथा भगवदर्थ कर्म और उपासना के करने से मनुष्य की बुद्धि शुद्ध होती है, इसलिए जो उपर्युक्त साधनों से रहित है, उसकी बुद्धि अशुद्ध है, ऐसा समझना चाहिए।) होने के कारण उस विषय में यानी कर्मों के होने में केवल शुद्ध स्वरूप आत्मा को कर्ता समझता है, वह मलीन बुद्धि वाला अज्ञानी यथार्थ नहीं समझता। 16 Astro Motive Astrology by Astrologer Dr. C K Singh
जिस पुरुष के अन्तःकरण में 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और कर्मों में लिपायमान नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मरता है और न पाप से बँधता है। (जैसे अग्नि, वायु और जल द्वारा प्रारब्धवश किसी प्राणी की हिंसा होती देखने में आए तो भी वह वास्तव में हिंसा नहीं है, वैसे ही जिस पुरुष का देह में अभिमान नहीं है और स्वार्थरहित केवल संसार के हित के लिए ही जिसकी सम्पूर्ण क्रियाएँ होती हैं, उस पुरुष के शरीर और इन्द्रियों द्वारा यदि किसी प्राणी की हिंसा होती हुई लोकदृष्टि में देखी जाए, तो भी वह वास्तव में हिंसा नहीं है क्योंकि आसक्ति, स्वार्थ और अहंकार के न होने से किसी प्राणी की हिंसा हो ही नहीं सकती तथा बिना कर्तृत्वाभिमान के किया हुआ कर्म वास्तव में अकर्म ही है, इसलिए वह पुरुष 'पाप से नहीं बँधता'।)। 17 Astro Motive Astrology by Astrologer Dr. C K Singh
ज्ञाता (जानने वाले का नाम 'ज्ञाता' है।), ज्ञान (जिसके द्वारा जाना जाए, उसका नाम 'ज्ञान' है। ) और ज्ञेय (जानने में आने
वाली वस्तु का नाम 'ज्ञेय' है।)- ये तीनों प्रकार की
कर्म-प्रेरणा हैं और कर्ता (कर्म करने वाले का नाम 'कर्ता' है।), करण (जिन साधनों से कर्म किया
जाए, उनका नाम 'करण' है।) तथा क्रिया (करने का नाम 'क्रिया' है।)- ये तीनों प्रकार का कर्म-संग्रह
है। 18
गुणों की संख्या करने वाले शास्त्र में ज्ञान और
कर्म तथा कर्ता गुणों के भेद से तीन-तीन प्रकार के ही कहे गए हैं, उनको भी तु मुझसे भलीभाँति
सुन। 19
जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक-पृथक सब भूतों में एक
अविनाशी परमात्मभाव को विभागरहित समभाव से स्थित देखता है, उस ज्ञान को तू सात्त्विक जान।
20
किन्तु जो ज्ञान अर्थात जिस ज्ञान के द्वारा
मनुष्य सम्पूर्ण भूतों में भिन्न-भिन्न प्रकार के नाना भावों को अलग-अलग जानता है, उस ज्ञान को तू राजस जान। 21
परन्तु जो ज्ञान एक कार्यरूप शरीर में ही
सम्पूर्ण के सदृश आसक्त है तथा जो बिना युक्तिवाला,
तात्त्विक
अर्थ से रहित और तुच्छ है- वह तामस कहा गया है। 22
जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हुआ और
कर्तापन के अभिमान से रहित हो तथा फल न चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग-द्वेष के
किया गया हो- वह सात्त्विक कहा जाता है। 23
परन्तु जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त होता है
तथा भोगों को चाहने वाले पुरुष द्वारा या अहंकारयुक्त पुरुष द्वारा किया जाता है, वह कर्म राजस कहा गया है। 24
जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न विचारकर केवल अज्ञान से आरंभ किया जाता है, वह तामस कहा जाता है। 25 Astro Motive Astrology by Astrologer Dr. C K Singh
जो कर्ता संगरहित,
अहंकार
के वचन न बोलने वाला, धैर्य
और उत्साह से युक्त तथा कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष -शोकादि विकारों
से रहित है- वह सात्त्विक कहा जाता है। 26
जो कर्ता आसक्ति से युक्त कर्मों के फल को चाहने
वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाववाला, अशुद्धाचारी और हर्ष-शोक से
लिप्त है वह राजस कहा गया है। 27
जो कर्ता अयुक्त,
शिक्षा
से रहित घमंडी, धूर्त
और दूसरों की जीविका का नाश करने वाला तथा शोक करने वाला, आलसी और दीर्घसूत्री
(दीर्घसूत्री उसको कहा जाता है कि जो थोड़े काल में होने लायक साधारण कार्य को भी
फिर कर लेंगे, ऐसी
आशा से बहुत काल तक नहीं पूरा करता। ) है वह तामस कहा जाता है। 28
हे धनंजय ! अब तू बुद्धि का और धृति का भी गुणों
के अनुसार तीन प्रकार का भेद मेरे द्वारा सम्पूर्णता से विभागपूर्वक कहा जाने वाला
सुन। 29
हे पार्थ ! जो बुद्धि प्रवृत्तिमार्ग (गृहस्थ
में रहते हुए फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदर्पण बुद्धि से केवल लोकशिक्षा के लिए
राजा जनक की भाँति बरतने का नाम 'प्रवृत्तिमार्ग' है।) और निवृत्ति मार्ग को
(देहाभिमान को त्यागकर केवल सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव स्थित हुए श्री शुकदेवजी
और सनकादिकों की भाँति संसार से उपराम होकर विचरने का नाम 'निवृत्तिमार्ग' है।), कर्तव्य और अकर्तव्य को, भय और अभय को तथा बंधन और
मोक्ष को यथार्थ जानती है- वह बुद्धि सात्त्विकी है । 30
हे पार्थ! मनुष्य जिस बुद्धि के द्वारा धर्म और
अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथार्थ नहीं जानता, वह बुद्धि राजसी है। 31
हे अर्जुन! जो तमोगुण से घिरी हुई बुद्धि अधर्म
को भी 'यह धर्म है' ऐसा मान लेती है तथा इसी
प्रकार अन्य संपूर्ण पदार्थों को भी विपरीत मान लेती है, वह बुद्धि तामसी है। 32
हे पार्थ! जिस अव्यभिचारिणी धारण शक्ति (भगवद्विषय के सिवाय अन्य सांसारिक विषयों को धारण करना ही व्यभिचार दोष है, उस दोष से जो रहित है वह 'अव्यभिचारिणी धारणा' है।) से मनुष्य ध्यान योग के द्वारा मन, प्राण और इंद्रियों की क्रियाओं ( मन, प्राण और इंद्रियों को भगवत्प्राप्ति के लिए भजन, ध्यान और निष्काम कर्मों में लगाने का नाम 'उनकी क्रियाओं को धारण करना' है।) को धारण करता है, वह धृति सात्त्विकी है। 33 Astro Motive Astrology by Astrologer Dr. C K Singh
परंतु हे पृथापुत्र अर्जुन! फल की इच्छावाला
मनुष्य जिस धारण शक्ति के द्वारा अत्यंत आसक्ति से धर्म, अर्थ और कामों को धारण करता है, वह धारण शक्ति राजसी है। 34
हे पार्थ! दुष्ट बुद्धिवाला मनुष्य जिस धारण
शक्ति के द्वारा निद्रा, भय, चिंता और दु:ख को तथा
उन्मत्तता को भी नहीं छोड़ता अर्थात धारण किए रहता है- वह धारण शक्ति तामसी है। 35
हे भरतश्रेष्ठ! अब तीन प्रकार के सुख को भी तू
मुझसे सुन। जिस सुख में साधक मनुष्य भजन, ध्यान
और सेवादि के अभ्यास से रमण करता है और जिससे दुःखों के अंत को प्राप्त हो जाता है, जो ऐसा सुख है, वह आरंभकाल में यद्यपि विष के
तुल्य प्रतीत (जैसे खेल में आसक्ति वाले बालक को विद्या का अभ्यास मूढ़ता के कारण
प्रथम विष के तुल्य भासता है वैसे ही विषयों में आसक्ति वाले पुरुष को भगवद्भजन, ध्यान, सेवा आदि साधनाओं का अभ्यास
मर्म न जानने के कारण प्रथम 'विष
के तुल्य प्रतीत होता' है)
होता है, परन्तु परिणाम में अमृत के
तुल्य है, इसलिए वह परमात्मविषयक बुद्धि
के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला सुख सात्त्विक कहा गया है। 36-37
जो सुख विषय और इंद्रियों के संयोग से होता है, वह पहले- भोगकाल में अमृत के तुल्य प्रतीत होने पर भी परिणाम में विष के तुल्य (बल, वीर्य, बुद्धि, धन, उत्साह और परलोक का नाश होने से विषय और इंद्रियों के संयोग से होने वाले सुख को 'परिणाम में विष के तुल्य' कहा है) है इसलिए वह सुख राजस कहा गया है। 38 Astro Motive Astrology by Astrologer Dr. C K Singh
जो सुख भोगकाल में तथा परिणाम में भी आत्मा को
मोहित करने वाला है, वह
निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न
सुख तामस कहा गया है। 39
पृथ्वी में या आकाश में अथवा देवताओं में तथा
इनके सिवा और कहीं भी ऐसा कोई भी सत्त्व नहीं है,
जो
प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो। 40
हे परंतप! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों के तथा
शूद्रों के कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों द्वारा विभक्त किए गए हैं। 41
अंतःकरण का निग्रह करना, इंद्रियों का दमन करना, धर्मपालन के लिए कष्ट सहना, बाहर-भीतर से शुद्ध (गीता
अध्याय 13 श्लोक 7 की टिप्पणी में देखना चाहिए)
रहना, दूसरों के अपराधों को क्षमा
करना, मन, इंद्रिय और शरीर को सरल रखना, वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि में
श्रद्धा रखना, वेद-शास्त्रों
का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा के तत्त्व का अनुभव करना- ये सब-के-सब ही
ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं। 42
शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में न भागना, दान देना और स्वामिभाव- ये सब-के-सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं। 43 Astro Motive Astrology by Astrologer Dr. C K Singh
खेती, गोपालन
और क्रय-विक्रय रूप सत्य व्यवहार (वस्तुओं के खरीदने और बेचने में तौल, नाप और गिनती आदि से कम देना
अथवा अधिक लेना एवं वस्तु को बदलकर या एक वस्तु में दूसरी या खराब वस्तु मिलाकर दे
देना अथवा अच्छी ले लेना तथा नफा, आढ़त
और दलाली ठहराकर उससे अधिक दाम लेना या कम देना तथा झूठ, कपट, चोरी और जबरदस्ती से अथवा अन्य
किसी प्रकार से दूसरों के हक को ग्रहण कर लेना इत्यादि दोषों से रहित जो
सत्यतापूर्वक पवित्र वस्तुओं का व्यापार है उसका नाम 'सत्य व्यवहार' है।) ये वैश्य के स्वाभाविक
कर्म हैं तथा सब वर्णों की सेवा करना शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है। 44
अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों में तत्परता से लगा
हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्ति रूप परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है। अपने स्वाभाविक
कर्म में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार से कर्म करके परमसिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधि को तू सुन। 45
जिस परमेश्वर से संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति
हुई है और जिससे यह समस्त जगत् व्याप्त है (जैसे बर्फ जल से व्याप्त है, वैसे ही संपूर्ण संसार
सच्चिदानंदघन परमात्मा से व्याप्त है), उस
परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके (जैसे पतिव्रता स्त्री पति को
सर्वस्व समझकर पति का चिंतन करती हुई पति के आज्ञानुसार पति के ही लिए मन, वाणी, शरीर से कर्म करती है, वैसे ही परमेश्वर को ही
सर्वस्व समझकर परमेश्वर का चिंतन करते हुए परमेश्वर की आज्ञा के अनुसार मन, वाणी और शरीर से परमेश्वर के
ही लिए स्वाभाविक कर्तव्य कर्म का आचरण करना 'कर्म
द्वारा परमेश्वर को पूजना' है)
मनुष्य परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है। 46
अच्छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से
गुणरहित भी अपना धर्म श्रेष्ठ है, क्योंकि
स्वभाव से नियत किए हुए स्वधर्मरूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त
होता। 47
अतएव हे कुन्तीपुत्र! दोषयुक्त होने पर भी सहज
कर्म (प्रकृति के अनुसार शास्त्र विधि से नियत किए हुए वर्णाश्रम के धर्म और
सामान्य धर्मरूप स्वाभाविक कर्म हैं उनको ही यहाँ स्वधर्म, सहज कर्म, स्वकर्म, नियत कर्म, स्वभावज कर्म, स्वभावनियत कर्म इत्यादि नामों
से कहा है) को नहीं त्यागना चाहिए, क्योंकि
धूएँ से अग्नि की भाँति सभी कर्म किसी-न-किसी दोष से युक्त हैं। 48
सर्वत्र आसक्तिरहित बुद्धिवाला, स्पृहारहित और जीते हुए
अंतःकरण वाला पुरुष सांख्ययोग के द्वारा उस परम नैष्कर्म्यसिद्धि को प्राप्त होता
है। 49
जो कि ज्ञान योग की परानिष्ठा है, उस नैष्कर्म्य सिद्धि को जिस
प्रकार से प्राप्त होकर मनुष्य ब्रह्म को प्राप्त होता है, उस प्रकार को हे कुन्तीपुत्र!
तू संक्षेप में ही मुझसे समझ। 50
विशुद्ध बुद्धि से युक्त तथा हलका, सात्त्विक और नियमित भोजन करने वाला, शब्दादि विषयों का त्याग करके एकांत और शुद्ध देश का सेवन करने वाला, सात्त्विक धारण शक्ति के (इसी अध्याय के श्लोक 33 में जिसका विस्तार है) द्वारा अंतःकरण और इंद्रियों का संयम करके मन, वाणी और शरीर को वश में कर लेने वाला, राग-द्वेष को सर्वथा नष्ट करके भलीभाँति दृढ़ वैराग्य का आश्रय लेने वाला तथा अहंकार, बल, घमंड, काम, क्रोध और परिग्रह का त्याग करके निरंतर ध्यान योग के परायण रहने वाला, ममतारहित और शांतियुक्त पुरुष सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में अभिन्नभाव से स्थित होने का पात्र होता है। 51-53 Astro Motive Astrology by Astrologer Dr. C K Singh
फिर वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में एकीभाव से
स्थित, प्रसन्न मनवाला योगी न तो किसी
के लिए शोक करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है। ऐसा समस्त प्राणियों में
समभाव वाला (गीता अध्याय 6 श्लोक
29 में देखना चाहिए) योगी मेरी
पराभक्ति को ( जो तत्त्व ज्ञान की पराकाष्ठा है तथा जिसको प्राप्त होकर और कुछ
जानना बाकी नहीं रहता वही यहाँ पराभक्ति, ज्ञान
की परानिष्ठा, परम
नैष्कर्म्यसिद्धि और परमसिद्धि इत्यादि नामों से कही गई है) प्राप्त हो जाता है। 54
उस पराभक्ति के द्वारा वह मुझ परमात्मा को, मैं जो हूँ और जितना हूँ, ठीक वैसा-का-वैसा तत्त्व से
जान लेता है तथा उस भक्ति से मुझको तत्त्व से जानकर तत्काल ही मुझमें प्रविष्ट हो
जाता है। 55
मेरे परायण हुआ कर्मयोगी तो संपूर्ण कर्मों को
सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परमपद को प्राप्त हो जाता है। 56
सब कर्मों को मन से मुझमें अर्पण करके (गीता
अध्याय 9 श्लोक 27 में जिसकी विधि कही है) तथा
समबुद्धि रूप योग को अवलंबन करके मेरे परायण और निरंतर मुझमें चित्तवाला हो। 57
उपर्युक्त प्रकार से मुझमें चित्तवाला होकर तू मेरी कृपा से समस्त संकटों को अनायास ही पार कर जाएगा और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को न सुनेगा तो नष्ट हो जाएगा अर्थात परमार्थ से भ्रष्ट हो जाएगा। 58 Astro Motive Astrology by Astrologer Dr. C K Singh
जो तू अहंकार का आश्रय लेकर यह मान रहा है कि 'मैं युद्ध नहीं करूँगा' तो तेरा यह निश्चय मिथ्या है, क्योंकि तेरा स्वभाव तुझे
जबर्दस्ती युद्ध में लगा देगा। 59
हे कुन्तीपुत्र! जिस कर्म को तू मोह के कारण
करना नहीं चाहता, उसको
भी अपने पूर्वकृत स्वाभाविक कर्म से बँधा हुआ परवश होकर करेगा। 60
हे अर्जुन! शरीर रूप यंत्र में आरूढ़ हुए
संपूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार
भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है। 61
हे भारत! तू सब प्रकार से उस परमेश्वर की ही शरण में (लज्जा, भय, मान, बड़ाई और आसक्ति को त्यागकर एवं शरीर और संसार में अहंता, ममता से रहित होकर एक परमात्मा को ही परम आश्रय, परम गति और सर्वस्व समझना तथा अनन्य भाव से अतिशय श्रद्धा, भक्ति और प्रेमपूर्वक निरंतर भगवान के नाम, गुण, प्रभाव और स्वरूप का चिंतन करते रहना एवं भगवान का भजन, स्मरण करते हुए ही उनके आज्ञा अनुसार कर्तव्य कर्मों का निःस्वार्थ भाव से केवल परमेश्वर के लिए आचरण करना यह 'सब प्रकार से परमात्मा के ही शरण' होना है) जा। उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शांति को तथा सनातन परमधाम को प्राप्त होगा। 62 Astro Motive Astrology by Astrologer Dr. C K Singh
इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान
मैंने तुमसे कह दिया। अब तू इस रहस्ययुक्त ज्ञान को पूर्णतया भलीभाँति विचार कर, जैसे चाहता है वैसे ही कर। 63
संपूर्ण गोपनीयों से अति गोपनीय मेरे परम
रहस्ययुक्त वचन को तू फिर भी सुन। तू मेरा अतिशय प्रिय है, इससे यह परम हितकारक वचन मैं
तुझसे कहूँगा। 64
हे अर्जुन! तू मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और
मुझको प्रणाम कर। ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा, यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा
करता हूँ क्योंकि तू मेरा अत्यंत प्रिय है। 65
संपूर्ण धर्मों को अर्थात संपूर्ण कर्तव्य
कर्मों को मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण
(इसी अध्याय के श्लोक 62 की
टिप्पणी में शरण का भाव देखना चाहिए।) में आ जा। मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त
कर दूँगा, तू शोक मत कर। 66
तुझे यह गीत रूप रहस्यमय उपदेश किसी भी काल में
न तो तपरहित मनुष्य से कहना चाहिए, न
भक्ति-(वेद, शास्त्र
और परमेश्वर तथा महात्मा और गुरुजनों में श्रद्धा,
प्रेम
और पूज्य भाव का नाम 'भक्ति' है।)-रहित से और न बिना सुनने
की इच्छा वाले से ही कहना चाहिए तथा जो मुझमें दोषदृष्टि रखता है, उससे तो कभी भी नहीं कहना
चाहिए। 67
जो पुरुष मुझमें परम प्रेम करके इस परम
रहस्ययुक्त गीताशास्त्र को मेरे भक्तों में कहेगा,
वह
मुझको ही प्राप्त होगा- इसमें कोई संदेह नहीं है। 68
उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों
में कोई भी नहीं है तथा पृथ्वीभर में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में
होगा भी नहीं। 69
जो पुरुष इस धर्ममय हम दोनों के संवाद रूप
गीताशास्त्र को पढ़ेगा, उसके
द्वारा भी मैं ज्ञानयज्ञ (गीता अध्याय 4 श्लोक
33 का अर्थ देखना चाहिए।) से
पूजित होऊँगा- ऐसा मेरा मत है। 70
जो मनुष्य श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टि से रहित
होकर इस गीताशास्त्र का श्रवण भी करेगा, वह
भी पापों से मुक्त होकर उत्तम कर्म करने वालों के श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होगा। 71
हे पार्थ! क्या इस (गीताशास्त्र) को तूने
एकाग्रचित्त से श्रवण किया? और
हे धनञ्जय! क्या तेरा अज्ञानजनित मोह नष्ट हो गया?।
72
अर्जुन बोले- हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह
नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब
मैं संशयरहित होकर स्थिर हूँ, अतः
आपकी आज्ञा का पालन करूँगा। 73
संजय बोले- इस प्रकार मैंने श्री वासुदेव के और
महात्मा अर्जुन के इस अद्भुत रहस्ययुक्त, रोमांचकारक
संवाद को सुना। 74
श्री व्यासजी की कृपा से दिव्य दृष्टि पाकर
मैंने इस परम गोपनीय योग को अर्जुन के प्रति कहते हुए स्वयं योगेश्वर भगवान
श्रीकृष्ण से प्रत्यक्ष सुना। 75
हे राजन! भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के इस
रहस्ययुक्त, कल्याणकारक
और अद्भुत संवाद को पुनः-पुनः स्मरण करके मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ। 76
हे राजन्! श्रीहरि (जिसका स्मरण करने से पापों
का नाश होता है उसका नाम 'हरि' है) के उस अत्यंत विलक्षण रूप
को भी पुनः-पुनः स्मरण करके मेरे चित्त में महान आश्चर्य होता है और मैं बार-बार
हर्षित हो रहा हूँ। 77
हे राजन! जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण हैं और
जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन है, वहीं
पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है- ऐसा
मेरा मत है। 78
|| ॐ तत् सत ||
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